Saturday, June 7, 2008

सिर्फ़ मैं





जी चाहता है



खो जाऊँ



इन्ही अंधेरों में



जिनसे निकली थी मैं



रौशनी की



तस्वीर बनकर



गम जाऊँ



गुमनामी के



आवारा बादलों के संग



लिपट जाऊँ



अंधेरों की



हमनशीं बनकर



भूल जाऊँ



उजालों को



उजड़ी जागीर समझकर



कोई रात



न सवेरा हो



कोई मंजिल



न चेहरा हो



न घर



न डेरा हो


न धुप
न चाँदनी हो



एक गुमनामी का



तपता रेगिस्तान



और सिर्फ़ मैं



मेरे लिए



२७/२/२००८

4 comments:

tarun mishra said...

नियाजे -इश्क की ऐसी भी एक मंजिल है ।
जहाँ है शुक्र शिकायत किसी को क्या मालूम । ।

Pramod Kumar Kush 'tanha' said...

कोई रात
न सवेरा हो
कोई मंजिल
न चेहरा हो
न घर
न डेरा हो
न धुप
न चाँदनी हो
एक गुमनामी का
तपता रेगिस्तान
और सिर्फ़ मैं
मेरे लिए

sunder rachna ke liye shubhkamnaein...

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत खूब।
आपके अल्फाज आपके जज्बातों के साथ ऐसे बहते हैं, जैसे हिमशिखर से झरता हुआ झरना।
इस प्यारी की कविता के लिए ढेर सारी बधाईयाँ।

Anil said...

mere paas actually iski taarif me words nahi hein......
excellent!!!!!!