जी चाहता है
खो जाऊँ
इन्ही अंधेरों में
जिनसे निकली थी मैं
रौशनी की
तस्वीर बनकर
गम जाऊँ
गुमनामी के
आवारा बादलों के संग
लिपट जाऊँ
अंधेरों की
हमनशीं बनकर
भूल जाऊँ
उजालों को
उजड़ी जागीर समझकर
कोई रात
न सवेरा हो
कोई मंजिल
न चेहरा हो
न घर
न डेरा हो
न धुप
न चाँदनी हो
एक गुमनामी का
तपता रेगिस्तान
और सिर्फ़ मैं
मेरे लिए
२७/२/२००८
4 comments:
नियाजे -इश्क की ऐसी भी एक मंजिल है ।
जहाँ है शुक्र शिकायत किसी को क्या मालूम । ।
कोई रात
न सवेरा हो
कोई मंजिल
न चेहरा हो
न घर
न डेरा हो
न धुप
न चाँदनी हो
एक गुमनामी का
तपता रेगिस्तान
और सिर्फ़ मैं
मेरे लिए
sunder rachna ke liye shubhkamnaein...
बहुत खूब।
आपके अल्फाज आपके जज्बातों के साथ ऐसे बहते हैं, जैसे हिमशिखर से झरता हुआ झरना।
इस प्यारी की कविता के लिए ढेर सारी बधाईयाँ।
mere paas actually iski taarif me words nahi hein......
excellent!!!!!!
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