Thursday, October 9, 2008

लाज का कफ़न


ख्वाबो की तरह
हर लम्हा टूटती रही
आंसूंओं की तरह
तुम ज़िन्दगी से फिसलते रहे
परछाई की तरह
तुम्हें पकड़ती रही
यादों की तरह
ख़ुद को समेटती रही
हर खरीददार बोली लगता रहा
और सरे बाज़ार
प्यार बिकता रहा
कांच सा दिल
ठोकरों से टूट ता रहा
रेत की तरह हाथ से
ज़र्रा ज़र्रा बिखरता रहा
दर्द सीप में
मोटी सा क़ैद रहा
लाज काआँचल
दागदार होकर भी
अरमानो की लाश पर
कफ़न सा बिछता रहा
६/१०/२००८

3 comments:

makrand said...

प्यार बिकता रहा
कांच सा दिल
ठोकरों से टूट ता रहा
रेत की तरह हाथ से

bahut sunder rachana
keep writing
visited frist time on u r blog
but feel nice cool breeze of words
regards

परमजीत सिहँ बाली said...

जैस्मीन जी, शायद पहली बार आप की रचना पढ रहा हूँ । आप की यह रचना बहुत भावपूर्ण रचना है।बहुत सुन्दर लिखा है-

प्यार बिकता रहा
कांच सा दिल
ठोकरों से टूटता रहा
रेत की तरह हाथ से
ज़र्रा ज़र्रा बिखरता रहा

Unknown said...

you have a great depth of thoughts and smooth flow of imagination.
keep it up
why dont you publish a book
bye
samir